नौकरी छोड़ ग़रीब बच्चों को मुफ़्त में राजमा चावल खिला रही हैं दिल्ली की सिंगल मदर

बहुत कम लोग होते हैं जो अपनी नौकरी छोड़कर दूसरों के लिए कुछ कर गुज़रने का जज़्बा रखते हैं. परोपकार की भावना चाहे कितनी भी हो आरामदायक नौकरी छोड़कर दूसरों के लिए जीना शुरू करना, आसान नहीं है. सोचिए कोई करियर के शीर्ष पर हो और फिर अचानक एक दिन उसने नौकरी छोड़ने का फैसला लिया.
सरिता कश्यप (Sarita Kashyap) उन्हीं चुनींदा इंसानों में से एक हैं. जनवरी, 2019 में अपने करियर के शीर्ष पर थीं सरिता. तभी उन्होंने ज़िन्दगी पलटने वाला निर्णय ले लिया- नौकरी छोड़ने का निर्णय. उनके पास कोई दूसरी नौकरी नहीं थी, न ही उनको कहीं से लॉटरी लगी थी.
सरिता के अंतर्मन से एक आवाज़ आई कि उन्हें नौकरी छोड़कर ग़रीब और बेसहारों के लिए कुछ करना चाहिए. बस फिर वो समाज सेवा में लग गईं और फिर मुड़कर नहीं देखा.
इंडिया टाइम्स हिंदी की कोशिश है कि ऐसी महिलाओं की कहानियां आप तक पहुंचाई जाए जिनकी कहानियां पढ़-सुनकर हम अपने जीवन में सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं, जिन्होंने अपने बारे में न सोचकर दूसरों के बारे में सोचा, जिन्होंने महिलाओं और लड़कियों के लिए नए रास्ते बनाए.
सरिता कश्यप पश्चिम दिल्ली के पीरागढ़ी क्षेत्र में स्कूटी पर “अपनापन राजमा चावल” स्टॉल लगाती हैं और रोज़ लगभग 100 लोगों को मुफ़्त में राजमा चावल और रायता खिलाती हैं.
आस-पास की बस्तियों के बच्चे आंटी के स्टॉल पर रोज़ाना आते हैं. सरिता उन बच्चों के चेहरे पर मुस्कुराहट लाती हैं और यही उनका सुकून है. पश्चिम दिल्ली के पीड़ा गढ़ी में सरिता रोज़ाना सड़क पर भूखे घूमने वाले बच्चे, कचरा उठाने वाले, बेघर लोगों को खाना खिलाती हैं. सुबह के लगभग 11:30 बजे से सरिता अपनी स्कूटी लगाती हैं. ये स्टॉल 3-4 घंटे तक चलता है. खाना बनाने से लेकर, परोसने तक सब सरिता अकेले ही करती हैं.
17 साल पहले छोड़ी नौकरी, समाज के लिए कुछ करना चाहती थीं
सरिता ने 17 साल पहले अपनी नौकरी छोड़ी क्योंकि वो दूसरों के लिए कुछ करना चाहती थीं. स्टॉल लगाने के पहले दिन उन्होंने आस-पास कुछ बच्चों को घूमते देखा और उन्हें अपनी ज़िन्दगी का मकसद मिल गया. बच्चे भूखे थे लेकिन उनके पास खाना खरीदने के पैसे नहीं थे. सरिता ने बच्चों को राजमा चावल खिलाया और धीरे-धीरे बच्चों की संख्या बढ़ती गई.
सरिता की कोशिशों की वजह से कई बच्चों को रोज़ाना घर का बना, स्वादिष्ट और स्वास्थवर्धक खाना मिल जाता है. सरिता भिखारियों, बेघरों को भी खाने के लिए बुलाती हैं.
मध्यमवर्गीय परिवार से आती हैं, कमियों के बीच बड़ी हुईं
सरिता ने बताया कि वह एक मध्यमवर्गीय परिवार से हैं. उनके पास ऐसा बहुत कुछ नहीं था जो दूसरों को आसानी से मिल जाता था.
“मुझे पता है कमियों के साथ जीना, बड़े होना क्या होता है. मैं हमेशा से ही दूसरों की मदद करना चाहती थी.”, सरिता कश्यप के शब्दों में.
हमेशा से आत्मनिर्भर रहीं हैं सरिता. वो एक सिंगल मदर हैं और अपनी बेटी को अकेले ही संभाल रही हैं.
“किसी परेशान व्यक्ति की मदद करने से ज़्यादा सुकून मुझे किसी और काम में नहीं मिलता. बचपन में किसी ग़रीब को देखकर मैं रोने लगती थी. जब मेरी ज़िन्दगी सुधरी तो मैं हमेशा ऊपरवाले का धन्यवाद करती थी. मैंने ग़रीबों और बेसहारों की मदद करने में समय लिया लेकिन इतना काफ़ी नहीं है.”, सरिता कश्यप के शब्दों में.
पश्चिम दिल्ली के अस्पतालों में भर्ती मरीज़ों के परिवारवालों को खाना खिलाना चाहती थीं सरिता लेकिन ऐसा नहीं कर पाईं. इसके बाद उन्हें स्कूटी पर स्टॉल खोलने का आईडिया आया.
पीरागढ़ी के झुग्गी बस्तियों के लिए उम्मीद की किरण हैं सरिता
सरिता कश्यप का दिन सुबह 4 बजे शुरू होता है. पीरागढ़ी स्थित बस डिपो पर वो अपना स्टॉल लगाती हैं. राजमा चावल और रायता से भरे बरतन रखती हैं और आखिरी निवाला ख़त्म न होने तक वहीं खड़ी रहती हैं.
आम लोगों के लिए राजमा चावल की क़ीमत है 40 रुपये में हाफ़ प्लेट और 60 रुपये में फ़ुल प्लेट. इसी स्टॉल से कमाई करती हैं सरिता और ग़रीबों का भी पेट भरती हैं.
सरिता कश्यप बेघर, भूखे, ग़रीब बच्चों को शिक्षित करना चाहती हैं लेकिन फ़िल्हाल ऐसा करने में असमर्थ हैं. सरिता को उम्मीद है कि वो भविष्य में ऐसा ज़रूर करेंगी. सरिता प्रेरणा हैं, महिला सशक्तिकरण की मिसाल हैं.
[ डिसक्लेमर: यह न्यूज वेबसाइट से मिली जानकारियों के आधार पर बनाई गई है. Lok Mantra अपनी तरफ से इसकी पुष्टि नहीं करता है. ]