विलुप्त होती वेचुर गायों को 30 सालों से बचाने में लगी हैं डॉ. इयपे, मिला पद्म श्री सम्म्मान

जब डॉ. सोसम्मा इयपे ने 1980 के दशक में वेचुर गायों की विलुप्त होती जा रही नस्ल को बचाने का बीड़ा उठाया, तब उन्हें अपनी राह में आने वाली परेशानियों का ज़रा भी इल्म नहीं था। गांव-गांव जाकर गायों को तलाशना, किसानों को समझाना, अपने ही लोगों का विरोध और गायों की असमय मौत जैसी, न जाने कितनी समस्याओं से उन्हें जूझना पड़ा। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और संघर्ष करती रहीं। उन्हें हाल ही में मिला पद्म श्री पुरस्कार, उनके संघर्षों का सबसे उचित और सटीक सम्मान है।
डॉ. सोसम्मा इयपे ने कहा, “मुझे इस सम्मान की उम्मीद नहीं थी। इसे पाकर मैं वास्तव में बहुत खुश हूं। बहुत सारे लोग हैं, जो इस प्रयास में शामिल रहे। यह सम्मान उन सब के लिए भी खुशी लेकर आया है।”
वेचुर, भारत की देसी गाय की एक ऐसी नस्ल है, जिसके बारे में आप शायद ही जानते होंगे। कद में बहुत छोटी इस गाय से दूध काफी ज्यादा मात्रा में मिलता है, जिसमें औषधीय गुणों की भरमार होती है। इसके रख-रखाव और चारे पर भी कम ही खर्च करना पड़ता है। लेकिन इतनी खासियतों के बावजूद धीरे-धीरे इन गायों की संख्या में कमी आने लगी थी। 1980 के दशक में तो ये विलुप्त होने के करीब थीं। तब डॉ. सोसम्मा इनके संरक्षण के लिए आगे आईं और इन गायों को बचाना अपना मिशन बना लिया।
क्रॉस-ब्रीडिंग से मंडराया खतरा
हमसे बातचीत करते हुए डॉ. सोसम्मा बताती हैं, “1960 के दशक में राज्य सरकार ने दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए मवेशियों की प्रजनन नीति में बदलाव किया था। इसके बाद, देशी मवेशियों की विदेशी किस्मों के साथ बड़े पैमाने पर क्रॉस-ब्रीडिंग शुरू हो गई थी, जिसके चलते वेचुर गाय जैसी देसी किस्मों की संख्या में कमी आने लगी थी।”
डॉ. सोसम्मा , ‘केरल पशु चिकित्सा और पशु विज्ञान विश्वविद्यालय, त्रिशुर’ की एक रिटायर्ड प्रोफेसर हैं। वह पिछले 30 सालों से वेचुर गाय के संरक्षण में लगी हैं। नस्ल को विलुप्त होने के कगार से बचाने और इसकी आबादी बढ़ाने में उनके अथक प्रयासों के लिए उन्हें पद्म श्री से सम्मानित किया गया है।
इयपे को मिला एक बेहतर टीम का साथ
देश में इस नस्ल की कुछ ही गायें बची थीं। डॉ. सोसम्मा समझ चुकी थीं कि अगर उन्हें संरक्षित करने के लिए अभी कुछ नहीं किया गया, तो फिर आने वाले समय में काफी देर हो जाएगी। यूनिवर्सिटी के कुछ छात्रों के साथ मिलकर उन्होंने राज्य भर में इन गायों की तलाश करना शुरू कर दिया।
वह कहती है, “मैंने 1989 में, अपनी इस पहल की शुरुआत कर दी थी। तब विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों ने मुझसे संपर्क किया और वे मेरे साथ जुड़ गए। 15-20 छात्र तो ऐसे थे, जो कई सालों तक पूरी शिद्दत के साथ इस काम में लगे रहे। हम एक जगह से दूसरी जगह जाते, किसान और मवेशियों को पालने वालों के साथ गायों की जांच करते। मेरे कुछ छात्रों ने तो अपने परिवार को भी इसमें शामिल कर लिया था।”
वह आगे बताती हैं, “यह मेरे करियर के सबसे अच्छे समय में से एक था। हम सभी का एक ही उद्देश्य था और हम पूरी निष्ठा के साथ इसमें लगे हुए थे। हम अपने इस सफर का एक साथ आनंद ले रहे थे। मिशन इस नस्ल को बचाना और उन्हें किसानों को वापस देना था।”
काफी प्रयासों के बाद, इयपे को मिली पहली वेचुर गाय
गायों की तलाश मुख्य रूप से कोट्टायम और अलाप्पुझा के दक्षिणी जिलों से शुरु होते हुए आगे बढ़ने लगी। तब डॉ. सोसम्माऔर उनकी टीम को एक वेचुर गाय खोजने में काफी समय लगा था। उन्होंने बताया, “आखिरकार कई गांवों में घूमने के बाद, हमें अपनी पहली वेचुर गाय मिल ही गई, जो मनोहर नाम के एक किसान के पास थी। लेकिन वह अपनी गाय बेचने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं था। उसे बड़ी मुश्किल से समझाया गया। तब कहीं जाकर वह अपनी गाय हमें देने के लिए राज़ी हुआ।”
उनकी इस पहल के लिए यूनिवर्सिटी की तरफ से 65 हजार रुपये का फंड दिया गया था, जिसे उन्होंने गायों को खरीदने और उनकी देखभाल के लिए इस्तेमाल किया। धीरे-धीरे उन्हें और गायें मिलने लगीं और एक साल में उनके पास लगभग 24 वेचुर गायें थीं। इन्हें मन्नुथी में कृषि विश्वविद्यालय के खेत में रखा गया और वहीं उनकी देखभाल की गई। पूरी टीम की पहली प्राथमिकता गायों का प्रजनन कराना था, ताकि उनकी आबादी बढ़ सके।
लेकिन यह सब इतना आसान नहीं था। उन्हें अपने सफर में काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। 80 साल की डॉ. सोसम्मा कहती हैं, “क्योंकि ये राज्य के क्रॉस बीडिंग गायों की नीति के खिलाफ़ थी। इसलिए हमारी इस पहल को सरकार की तरफ से कोई समर्थन नहीं था। यूनिवर्सिटी में भी बहुत से लोग हमारे खिलाफ़ थे।”
‘24 गायों की मौत ने हिला दिया’
डॉ. इयपे ने कहा, “हमने अपनी पहल शुरू ही की थी कि एक साल बाद, खेत में ज़हर खाने से 24 गायों की मौत हो गई। यह एक दुखद घटना थी, जिसकी जांच भी हुई। लेकिन इसके कारणों का आज तक पता नहीं चल पाया है। घटना के बाद मेरे जीवन का सबसे कठिन समय शुरू हो गया था, लेकिन मैंने हार नहीं मानी और संघर्ष करती रही।”
वेचुर गायों को लेकर एक विवाद और भी था, जिसके बारे में में बताते हुए इयपे कहती हैं, “1998 में, एक पर्यावरणविद् ने दावा किया कि वेचुर नस्ल के डीएनए को स्कॉटलैंड के रोसलिन इंस्टीट्यूट द्वारा पेटेंट कराया गया है। इससे भारतीय शोध क्षेत्र में हलचल मच गई। तब संरक्षण के हमारे कार्य का भी काफी विरोध हुआ, लेकिन फिर दो साल बाद, एक जांच में यह दावा गलत साबित हुआ।”
इसके बाद, वेचुर गायों को भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICR) ने एक स्वदेशी पशु नस्ल के रूप में मान्यता दे दी थी।
फिर वेचुर संरक्षण ट्रस्ट का गठन किया
इयपे कहती हैं, “इन सभी विवादों के बाद एक ऐसे ट्रस्ट की जरूरत महसूस हुई, जो इस पहल में आम लोगों को शामिल कर सके। फिर 1998 में, हमने किसानों के साथ-साथ शोधकर्ताओं का समर्थन और भागीदारी बढ़ाने के लिए ‘वेचुर संरक्षण ट्रस्ट’ का गठन किया। यह ट्रस्ट, किसानों को वेचुर गायों के जर्मप्लाज्म देकर उनकी मदद करता है।”
मवेशियों की नस्ल के लिए अनुसंधान और प्रजनन कार्यक्रम भी चलाए गए। राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण (NBA), विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय, खाद्य और कृषि संगठन (AFO), केरल राज्य जैव विविधता बोर्ड, नाबार्ड और संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) जैसे कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के साथ साझेदारी की गई।
अब देशभर में हैं 5000 से ज्यादा वेचुर गायें
देशी मवेशियों की नस्ल को बचाने के मिशन से शुरू हुआ यह सफर, उनकी आबादी को स्थिर करने में सफल रहा है। वह बताती हैं, “अब केरल और देश के अन्य हिस्सों में 5,000 से अधिक वेचुर गायें हैं।”
डॉ. सोसम्मा को ‘खाद्य व कृषि संगठन (AFO)’ और ‘संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP)’ जैसे संगठनों से प्रशंसा भी मिली है। वह अभी भी सक्रिय हैं और वेचुर संरक्षण ट्रस्ट के साथ मिलकर काम करती हैं।
[ डिसक्लेमर: यह न्यूज वेबसाइट से मिली जानकारियों के आधार पर बनाई गई है. Lok Mantra अपनी तरफ से इसकी पुष्टि नहीं करता है. ]