12 साल की उम्र में अनाथ हुआ, आज हज़ारों बेसहारों का बना सहारा!

नागालैंड के दीमापुर निवासी सुबोनेंबा लोंगकुमेर ने 12 साल की उम्र आते-आते अपने माता-पिता को खो दिया था और अपने भाई-बहनों से भी बिछड़ गए थे। इसके बाद, उनका जीवन संघर्ष से भरा रहा, लेकिन इस बाल श्रमिक ने न सिर्फ अपनी ज़िन्दगी बदली बल्कि आज ज़रूरतमंद लोगों की ज़िन्दगी में भी बदलाव ला रहे हैं।
संघर्ष भरा बचपन
वह नौ साल के थे जब उनके पिता की एक गंभीर बीमारी के चलते मौत हो गई। इसके ठीक तीन साल बाद उन्होंने अपनी माँ को भी खो दिया। माता-पिता के जाने के बाद सुबोनेंबा अपने तीन भाई-बहन के साथ अकेले रह गए।
नागालैंड में उनके माता-पिता की मृत्यु के बाद आओ नागा आदिवासी समुदाय के लोगों ने तीन दिन का शोक किया। इसके बाद उनके अन्य परिवार वाले उनके माता-पिता की संपत्ति के फैसले के लिए इकट्ठे हुए, सबसे ज्यादा ज़रूरी यह था कि अब ये बच्चे कहाँ रहेंगे।
सुबोनेंबा लोंगकुमेर कहते हैं – “हम अपने रिश्तेदारों से करीब थे तो उन्होंने हमें अपने साथ रहने के लिए कहा, पर हम चारों बहन-भाई किसी एक परिवार के साथ नहीं रह सकते थे तो हम अलग-अलग जगह गए।”
उन्हें अपने अंकल के परिवार से रहने के लिए घर, पहनने को कपड़े और खाना तो मिला, पर किसी भी रिश्तेदार ने उनकी शिक्षा की ज़िम्मेदारी नहीं ली। वह चाहते थे कि सुबोनेंबा उनके छोटे से होटल पर काम करें और पैसे कमाए।
किस्मत से उनके पिता के एक अच्छे दोस्त ने उनकी और उनके बड़े भाई की शिक्षा की ज़िम्मेदारी ली। वह उनके लिए किताबें, यूनिफॉर्म आदि लेकर आए और लगभग चार साल तक उनके स्कूल की फीस भरी।
सुबोनेंबा पढ़ाई के साथ काम भी करते थे। वह होटल में पानी लाने, खाना बनाने और लकड़ियाँ इकट्ठा करने का काम करते थे।
“मैं भागना चाहता था, पर भाग नहीं सका। इसलिए, मैंने अपने इस अनुभव से सीखा। मैंने सीखा कि कभी भी किसी पर निर्भर मत रहो। साल 2000 में जब मैं कॉलेज से ग्रैजुयेट हुआ तो मैंने कसम खा ली कि मैं कभी अपने अंकल के पास नहीं जाऊंगा,” उन्होंने आगे कहा।
उनके बड़े भाई ने पुलिस फोर्स ज्वाइन की और फिर उन्होंने सुबोनेंबा की आगे की पढ़ाई के लिए पैसे दिए। कॉलेज में उन्हें वर्ल्ड विज़न इंडिया एनजीओ के एक प्रोजेक्ट के बारे में पता चला- वह शिक्षा के ज़रिए दीमापुर में बाल मजदूरी करने वाले बच्चों को पुनर्वासित करना चाहते थे। सुबोनेंबा ने यहाँ पर जॉब के लिए अप्लाई किया।
“मैं बाल मजदूर रहा था, इसलिए मैंने लड़ने की ठानी और उन बच्चों की मदद करने का निश्चय किया जिनके पास पढ़ने के लिए पैसे नहीं थे। लेकिन वहां कोई वैकेंसी नहीं थी और मुझसे कहा गया कि मैं पढ़ाने के लिए क्वॉलिफाइड नहीं हुआ। मैं दो बार रिजेक्ट हुआ। आखिरकार, उन्होंने मुझे एक ड्राईवर की नौकरी दी और वह मैंने स्वीकार ली क्योंकि मुझे आत्म-निर्भर होना था। मैंने अपना काम एक वॉलंटियर के तौर पर 2000 रुपये प्रति माह की सैलरी से शुरू किया।”
अपने काम के दौरान उन्होंने इन बच्चों से मिलना-जुलना और बात करना शुरू किया। फिर कुछ महीने बाद, जब एनजीओ ने ग्रेस कॉलोनी में स्कूल खोला तो उन्होंने वहां पढ़ाना भी शुरू कर दिया। इस स्कूल में 160 बच्चे और 8 शिक्षक थे। कुछ सालों तक उन्होंने वहां पर पढ़ाया, बच्चों की रिपोर्ट्स इकट्ठा की और डॉक्यूमेंटेशन किया। साल 2005 में संगठन ने मोन जिले में प्रोजेक्ट शुरू करने का निश्चय किया तो चीजें बदलने लगीं।
संघर्ष, बलिदान और बदलाव
सुबोनेंबा ने ग्रेस कॉलोनी में चल रहे स्कूल की ज़िम्मेदारी खुद पर ली। वह ये बात जानते थे कि इससे उन्हें बहुत सी चुनौतियों को सामना करना पड़ेगा।
स्कूल का बेसिक इंफ्रास्ट्रक्चर तो था, पर यह रजिस्टर नहीं था और न ही उनके पास इसे चलाने के लिए कोई फंडिंग थी। यहाँ के शिक्षक, जिन्हें पहले एनजीओ महीने की 3-4 हज़ार रुपये सैलरी देता था, उन्हें कई महीने तक कोई सैलरी नहीं मिली।ऐसे में, सुबोनेंबा ने अपनी सेकंड हैंड कार 1.47 लाख रुपये में बेच दिया और उस पैसे से शिक्षकों को सैलरी दी।
“मैंने उन्हें जनवरी 2008 से स्कूल आने के लिए मना कर दिया क्योंकि मेरे पास उनकी सैलरी देने के पैसे नहीं थे। पर हैरत की बात थी कि वे सभी लौट आए। उनकी आँखों में आंसू थे और वे सभी अपनी सैलरी छोड़ने के लिए तैयार थे। हम सबने साथ में स्कूल को बचाने की ठान ली और इस तरह से मैंने कम्युनिटी एजुकेशनल सेंटर सोसाइटी की शुरुआत की। साल 2008 में औपचारिक तौर पर राज्य सरकार के साथ हमने एक सामाजिक संगठन का रजिस्ट्रेशन कराया और स्कूल को कम्युनिटी एजुकेशन सेंटर स्कूल का नाम दिया।” – सुबोनेंबा
इसी बीच, दूसरी मदद उन्हें अमेरिका में रह रही अपनी एक दोस्त से मिली, जिसने पहले भी स्कूल के साथ इंटर्नशिप की थी। स्कूल की परेशानियां सुनकर उन्होंने 1.86 लाख रुपये इकट्ठे करके सुबोनेंबा को दिए ताकि स्कूल की ज़मीन को वे खरीद सकें।
आज कम्युनिटी एजुकेशनल सेंटर सोसाइटी का एक स्कूल दीमापुर, एक रेजिडेंशियल स्कूल तुली में और 15 इनफॉर्मल एजुकेशन सेंटर पूरे राज्य में चल रहे हैं। इसके अलावा, वे सुदूर गांवों के लिए एक मोबाइल मेडिकल यूनिट भी चलाते हैं। साथ ही, केंद्र के चाइल्डलाइन 1098 प्रोजेक्ट को लागू करने के लिए वे एक नोडल संगठन हैं।
बच्चों के लिए काम
2008 से ही कम्युनिटी एजुकेशनल सेंटर सोसाइटी ने बाल मजदूरी के खिलाफ अपना अभियान शुरू कर दिया था। लोगों में जागरूकता लाने के लिए उन्होंने सरकार के साथ कई छोटे प्रोजेक्ट्स किए। उन्होंने स्कूल, कॉलेज आदि में सेमिनार और वर्कशॉप आयोजित करके बच्चों के अधिकारों के बारे में सजगता फैलाई।तीन साल तक, उन्होंने यह सब काम बहुत ही कम फंडिंग में किए। धीरे-धीरे जब स्थानीय मीडिया ने उनके काम को हाईलाइट किया तो उन्हें नागालैंड सरकार से सपोर्ट मिला।
“2009 में हंस फाउंडेशन की चेयरपर्सन श्वेता रावत हमारे यहाँ आयीं थी, उन्हें किसी से हमारे काम के बारे में पता चला। फाउंडेशन ने 2010 में हमें अपना पूरा सहयोग दिया और अब तक भी हमारे प्राइमरी फंडर हैं। उन्होंने हमारे इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए और अन्य कई अभियानों के लिए फंडिंग दी है।”
दीमापुर वाले स्कूल में पहले असम और पश्चिम बंगाल से यहाँ काम करने आये दिहाड़ी-मजदूरों के बच्चे आते थे, पर पिछले कुछ सालों में नागा बच्चों ने भी आना शुरू किया है। आज यह स्कूल 580 बच्चों को अच्छी शिक्षा और रेग्युलर मिड-डे मील दे रहा है।तुली के रेजिडेंशियल स्कूल, राजेश्वरी करुणा स्कूल में 182 बच्चे हैं, जिनमें से 95% आदिवासी समुदायों से हैं। ये बच्चे स्कूल में ही रहते हैं और सभी आधुनिक तकनीकों के साथ शिक्षा पा रहे हैं।
“हमारे यहाँ से पढ़े हुए बच्चे अब प्राइवेट कंपनी में या फिर सरकारी नौकरियों में कार्यरत हैं तो कुछ अच्छी यूनिवर्सिटी में आगे पढ़ रहे हैं। हर साल हमारे यहाँ दसवीं पास करने वाले बच्चों का प्रतिशत 80 से 100 के बीच होता है,” उन्होंने बताया।
आप कुछ छात्रों का अनुभव यहाँ देख सकते हैं:
उन्होंने आगे कहा, “हमारे कुछ अनौपचारिक शिक्षण अभियान भी हैं। CECS अपने इनफॉर्मल एजुकेशन फॉर मार्जिनलाइज्ड चिल्ड्रेन (IEMC) प्रोजेक्ट के तहत इनफॉर्मल एजुकेशन सेंटर्स से इन बच्चों को एक बेहतर भविष्य दे रही हैं। इस प्रोजेक्ट को विप्रो केयर्स का सपोर्ट है। इस साल 15 IEMC सेंटर में 778 बच्चों को लिया गया, जिनमें से 248 बच्चों को फॉर्मल स्कूल में दाखिला दिलाया गया है।”
साथ ही, हंस फाउंडेशन की मदद से CECS ने एक मोबाइल मेडिकल यूनिट की शुरुआत भी की है। इसका उद्देश्य गांवों के गरीब लोगों को अच्छी और बेहतर मेडिकल सुविधाएँ देना है, जो कि समय पर उन तक पहुँच सके। यह यूनिट फिलहाल 37 गांवों को संभाल रही है और हर साल लगभग 5000 लोगों तक पहुँचती है।
इसके अलावा, नागालैंड में बेसहारा बच्चों के लिए सरकार का टोल-फ्री चाइल्डलाइन हेल्प नंबर 1098 भी उनका ही योगदान है। CECS इस प्रोजेक्ट के लिए नोडल संगठन है और इसमें सरकार, पुलिस के साथ मिलकर काम कर रहे हैं। वे इस विषय पर लोगों के लिए ट्रेनिंग और वर्कशॉप कंडक्ट करते हैं।
“जब भी हमें कोई कॉल आता है तो हम सबसे पहले बच्चे को बचाते हैं और उसे अपने शेल्टर होम भेजते हैं। यहाँ पर हम उसे तब तक रखते हैं, जब तक कि माता-पिता का पता न चल जाये। अगर हमें माता-पिता नहीं मिलते तो हम बच्चों को नागालैंड सरकार की चाइल्ड वेलफेयर समिति के सामने लेकर जाते हैं, जो केस को स्थानीय चाइल्डलाइन टीम के साथ संभालती है। हम बच्चों से पूछते हैं कि वे कहाँ से हैं और कोशिश करते हैं कि वे अपनी कहानी बताएं। दो-तीन महीने में, हम दूसरे जिलों के पुलिस स्टेशन और चाइल्डलाइन टीम से भी पूछताछ करते हैं। अगर हमें बच्चे के माता-पिता मिल जाते हैं तो हम उन्हें बच्चे को सौंप देते हैं। अगर बच्चा अनाथ हो तो उसे सरकार के ज़रिए अनाथ आश्रम या फिर एडॉप्शन होम भेजा जाता है,” उन्होंने समझाते हुए कहा।
कैसे करते हैं काम?
“नॉर्थईस्ट के लिए कोलकाता में एक सेंट्रलाइज्ड कॉल सेंटर है। सभी कॉल वहां जाते हैं और अगर कॉलर दीमापुर से हैं तो ऑपरेटर उसे दीमापुर की चाइल्डलाइन टीम के पास डायरेक्ट कर देते हैं। हमारे पास चार जिलों के लिए चाइल्डलाइन टीम सेटअप हैं,” नागालैंड के चाइल्डलाइन प्रोजेक्ट के नोडल कोऑर्डिनेटर, नेइकेतुली नाम्दौ ने बताया।अब तक, वे 2000 बच्चों को बचा चुके हैं और नाम्दौ इसका श्रेय अपने मेंटर सोबुनेंबा को देते हैं।
नाम्दौ आगे कहते हैं – “सर बहुत ही अच्छे लीडर हैं, वे आप में एक मिशन और उद्देश्य की भावना भर देते हैं। इससे काम करने का वातावरण बहुत अच्छा हो जाता है। वह हर दिन एक चुनौती के साथ आते हैं और हमें भी ऑफिस में हर पल अपना बेस्ट देने के लिए प्रेरित करते हैं। सर, हमारे लिए रोल मॉडल हैं।”
अंत में सोबुनेंबा बस यही कहते हैं, “हर एक जीवन अनमोल है। कुछ लोग अगर मेरी ज़िन्दगी में न होते तो शायद मेरी ज़िन्दगी गलत मोड़ ले सकती थी। मैं भी दूसरों के लिए यही करना चाहता हूँ। मैं दुनिया नहीं बदल सकता, पर मेरा काम दूसरों को उम्मीद दे सकता है और उन्हें बेहतर ज़िन्दगी की तरफ बढ़ने में मदद कर सकता है।”
[ डिसक्लेमर: यह न्यूज वेबसाइट से मिली जानकारियों के आधार पर बनाई गई है. Lok Mantra अपनी तरफ से इसकी पुष्टि नहीं करता है. ]