11वीं पास किसान ने कर दिए कुछ ऐसे आविष्कार, आज सालाना टर्नओवर हुआ 2 करोड़!

हम सभी सुनते आए हैं कि आवश्यकता ही अविष्कार की जननी है। इस दुनिया में हमें जितने भी सुख भोगने को मिले हैं, उनमें से अधिकांश के पीछे आवश्यकता ही छिपी रही होगी, ऐसा हम कह सकते हैं। उक्त कहावत का जीता-जागता उदाहरण हैं जोधपुर जिले के रामपुरा – मथानिया गाँव के किसान अरविंद सांखला।
एक समय में तिंवरी – मथानियां जैसे गांवों का यह बेल्ट मिर्ची की भरपूर पैदावार के कारण पूरी दुनिया में विख्यात था। जोधपुर जाने वालों को मथानियां की मिर्ची लाने के लिए ज़रूर कहा जाता। पर अति हर चीज़ की बुरी होती है, यह भी शाश्वत सत्य है। मोनोक्रॉपिंग के कारण इस सरसब्ज बेल्ट में मिर्चों की खेती में रोग पनपने लगें, पानी की भूतल गहराई बढ़ने के साथ ही लवणता भी बढ़ती चली गई।
ऐसे में अरविंद सहित यहां के कुछ प्रयोगशील किसानों ने गाजर की फसल लेना शुरू किया। उनकी मेहनत रंग लायी और देखते ही देखते यहां से प्रतिदिन 20 से 25 ट्रक गाजर निर्यात होने लगी। पर यहां भी एक समस्या थी, गाजरों पर महीन जड़ों के रोम होने के कारण स्थानीय किसानों को उतना भाव नहीं मिल पा रहा था, जितनी उनकी मेहनत थी। व्यापारियों की मांग पर यहां के कुछ किसान गाजरों को तगारी या कुण्डों में धोते थे। ऐसा करने पर गाजर पर चिपकी मिट्टी तो साफ हो जाती थी, लेकिन छोटे-छोटे बालों जैसी जड़ें यथावत बनीं रहती थीं। स्थानीय किसान गांवों में उपलब्ध टाट-बोरी पर रगड़-रगड़कर गाजरों को साफ करते थे। ऐसा करने से गाजरें ‘पालिश’ हो जाती थीं। फिर भी इस तरह के तरीके काफी मेहनती और अधिक समय लेने वाले होते थे।
1992 में इसी गाँव के किसान अरविंद ने कृषि यंत्रों को बनाने की शुरुआत गाजरों की सफाई की इस समस्या से निजात पाने के लिए की थी। पर धीरे-धीरे उन्हें इस काम में और दिलचस्पी होने लगी और वह किसानों की समस्या का समाधान करने में जुट गए।
अरविंद केवल 11वीं तक ही पढ़ पाए थे, पर अपनी बुद्धि और मेहनत के बलबूते पर उन्होंने ऐसे-ऐसे आविष्कार किये कि बड़े बड़े इनोवेटर उनका लोहा मानने लगें। आज उन्होंने पांच ऎसी मशीनें बनायी हैं, जिनसे किसानों की मुश्किलें हल तो हो ही रही हैं, साथ ही इन मशीनों की इतनी डिमांड है कि आज अरविंद का सालाना टर्नओवर 2 करोड़ हो चूका है।
आईये जानते हैं अरविंद की बनायीं मशीनों के बारे में –
1 गाजर सफाई की मशीन
इतने सालों में शोध करते हुए अरविन्द ने आखिर एक ऐसी गाजर साफ करने की मशीन बनायी है जिसकी क्षमता 4 कट्टों (यानी करीब 2 क्विंटल तक) की है। इस मशीन से इतनी गाजरों को एक साथ साफ करने में अब सिर्फ 15 मिनट लगते हैं। इसके ज़रिये एक घण्टे में करीब 16 कट्टे यानी 8 क्विंटल तक गाजर साफ की जा सकती हैं। इसके विपरीत, हाथ से कोई मजदूर 1 कट्टा (50 किलो) गाजर साफ करने में कम से कम 25 मिनट या इससे अधिक समय लगाता था। अब इसी मशीन पर दो आदमी 15 मिनट में 7 कट्टे एक साथ धो सकते हैं। यदि दो आदमी हों तो, एक घण्टे में करीब 30 से 40 कट्टे साफ किए जा सकते हैं।
वह बताते हैं,“गाज़र धुलाई के लिए मैंने दो तरह की मशीनें बनाई हैं, एक चेसिस तथा टायर सहित (जिसे इधर उधर ले जाया जा सकता है, मोबाइल है), दूसरी बगैर चेसिस-टायर की, जो एक ही स्थान पर रखी जाती है।”
इन मशीनों के सेण्ट्रल ड्रम में दो वृत्ताकार मोटी चकतियों की परिधि पर समान मोटाई की आयरन -पत्तियों को थोड़े-थोड़े ‘गैप’ के साथ जोड़कर इस मशीन को बनाया गया है, इससे इस पिंजरेनुमा ड्रम की भीतरी सतह इतनी खुरदरी बन जाती है कि इसको घुमाने पर गाजरों पर लगी मिट्टी और महीन जड़ें तो रगड़ खाकर साफ हो जाती हैं पर गाजरों को खरोंच तक नहीं लगती। ड्रम की वृत्ताकार चकतियों के बीचों बीच लोहे का खोखला पाईप है, जिस पर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर पेंसिल डालने लायक छेद होते हैं। यह पाइप पानी के पंप से जुड़ा है। मशीन चालू करने पर इस छिद्रित पाईप से तेज फव्वारे छूटते हैं, जो गोल घूमते ड्रम के अन्दर डाली हुई गाजरों पर चिपकी मिट्टी और सूक्ष्म रोम वाली गाजर को तुरन्त धो डालते हैं।
आज उनकी देखा-देखी दूसरे मिस्त्री भी इसे सफलतापूर्वक बना रहे हैं। गाजरों का सीजन कुल 4 महीने चलता है और अरविंद खुद इस दौरान औसतन 20 से 200 मशीनें (कम से कम 20, 50, 60 या 100, 200 तक मशीनें बिकती हैं एक सीजन में, जैसी डिमांड हो उसके अनुसार) बेचते हैं। पर वह एक सावधानी बरतते हैं, बिना ऑर्डर और एडवांस लिए बगैर मशीन तैयार नहीं करते।
इस मशीन की क्षमता 2000 किलो प्रति घण्टा (अधिकतम) गाजर सफाई की है और वर्तमान में इसे 40,500/- रूपए से लेकर 63,500/- तक मशीन की सुविधाओं के आधार पर बेचा जा रहा है। अब तो कृषि विभाग भी उनकी इस मशीन पर 40 प्रतिशत अनुदान देने लगा है जिससे किसानों को काफी राहत मिली है।
यह अरविन्द जैसे हुनरमंद भूमिपुत्रों की मेहनत का ही जलवा है, जो आज बाजार से खरीदी गाजर को बिना धोए सीधे खा सकते हैं, बिना किसी किरकिरी के डर के।
2. लोरिंग मशीन
अरविंद के गाँव के आसपास के इलाके में बरसों पहले परंपरागत कुए थे, बाद में किसानों ने बोरवेल खुदवाए। बोरवेल में पंप को लोरिंग- अनलोरिंग करना होता है। कई बार पंप ख़राब हो जाता है, इसे कई युक्तियों या जुगाड़ से बाहर निकाला जाता था। जुगाड़ रूपी झूला बनाकर 5 लोग पम्प को निकालते और सही करके वापस लगाते। इस तरह से इस काम में पूरा दिन चला जाता था।
इसके अलावा भी एक और समस्या थी, गांवों में बिजली 6 घंटे ही आती थी। इस काम को करने के चक्कर में दूसरे काम भी नहीं हो पाते थे, जो कि बिजली आने पर करने जरुरी होते थे। इस समस्या को देखते हुए उन्होंने सोचा कि समय की बचत की जा सके, ऐसी कोई युक्ति या जुगाड़ सोचना चाहिए। इस युक्ति के तहत झूले के साथ एक मोटर लगाई। मोटर लगने से काम आसान हुआ। फिर एक स्टैंड बनाया जिसकी चैसिस की साइज 6×3 और घोड़े की साइज 4×2 थी। एक गियर बॉक्स का निर्माण भी किया, जिसमें आरपीएम बना दिए।
अरविंद बताते हैं, “पहले बोरवेल की गहराई 300 फ़ीट थी, अब 100 फ़ीट से 1000 फ़ीट के बोरवेल में पम्प बैठाने का काम आसानी से हो जाता है। एक अकेला व्यक्ति यह सारा काम अब मात्र एक घंटे में कर लेता है।”
पहले जब मोटर बनाई थी तो एक समस्या थी कि जब बिजली नहीं होती थी, तब ये काम नहीं हो सकता था। इस समस्या से मुक्ति के लिए इसे डीजल इंजिन से जोड़कर काम में लेना शुरू किया गया। डीजल इंजिन की भी समस्या थी, हर किसान डीजल इंजिन लगा नहीं सकता था। एक समस्या यह भी थी कि यदि डीजल इंजिन खराब हो गया तो क्या करेंगे? फिर इसे ट्रेक्टर की पीटीओ साप्ट से जोड़ दिया गया। अब बिजली होने पर बिजली से, डीजल इंजिन से और ट्रेक्टर से काम होने लग गया है। अब किसानों को पम्प लगाने में 10 घंटे की बजाय 1-2 घण्टे लग रहे हैं।
90,000 से 1,25,000 रूपये तक की कीमत में आने वाली यह मशीन अब राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात, हरियाणा, उड़ीसा आदि के किसानों तक भी पहुँच चुकी है।
3. लहसुन की फसल निकालने हेतु कुली मशीन
लहसुन की खेती में एक किसान दिनभर में 100 से 200 किलो लहसुन ही खेत से निकाल पाता था। एक नुकसान यह भी होता था कि दिनभर की मेहनत के बाद हाथ भी ख़राब हो जाते थे और अगले दिन खेत में मजदूरी करना संभव नहीं होता था। इस तरह से लागत बढ़ने लगी और किसान लहसुन को कम तवज्जो देने लगे, कम बुवाई करते। मार्किट में भाव भी पूरे नहीं मिलते। इस समस्या का हल निकालने के लिए अरविंद ने एक ऐसी मशीन का निर्माण किया, जिसे ट्रेक्टर के पीछे टोचिंग करके काम लिया जाता था। मशीन के पत्ते ज़मीन में 7-8 इंच या 1 फ़ीट तक गहरे जाते हैं और मिट्टी को नरम कर देते हैं, जिससे कि लहसुन को ढीली पड़ चुकी मिट्टी से आसानी से इकट्ठा किया जा सकता है।
अरविंद कहते हैं, “पहले हाथ से लहसुन निकालने पर एक किसान 5 क्यारी से ही लहसुन निकाल पाता था। एक बीघा में 100 क्यारियां होती हैं। अब एक लेबर एक दिन में एक बीघा में, मतलब 100 क्यारियों में से लहसुन उखाड़ सकता है। इससे टाइम की बचत हुई है और दाम भी अच्छे मिलने लगे हैं।”
12,500 से लेकर 15,000 हज़ार रुपये तक की लागत में बनी इस मशीन की राजस्थान के कोटा में बहुत मांग है, क्यूंकि यहाँ लहसुन ज्यादा होता है।
4. पुदीने की मशीन
जब मार्किट तेज़ रहता है तो हरा पुदीना तुरंत बिक जाता है, लेकिन मंदी के दौर में इसमें गिरावट आ जाती है। ऐसे में किसान शेष बचे पुदीने की फसल को सुखा देते हैं। सूखने के बाद पत्ती और डंठल को अलग करना होता है, जिसमें थोड़ी मात्रा में मिट्टी भी साथ होती है। गांवों में तार वाले देसी माचे (पलंग) होते हैं, इस पर महिलाएं आमने सामने बैठ कर पत्ती और डंठल को अलग करती हैं। बाद में छोटे डंठल को अलग से निकाला जाता है। इसमें पूरे दिन में 80 किलो से ज्यादा सूखा पुदीना साफ नहीं किया जा सकता। बाद में मिट्टी को भी एक पंखा चलाकर साफ़ किया जाता है।
अब मज़दूरी 150 से 200 रूपये प्रतिदिन है। हाथ से किये गए काम में कोई न कोई कमी रह ही जाती है, अतः मार्किट में भाव कम मिलते हैं, श्रम भी लग रहा है और भाव भी नहीं मिल पा रहा है, ऐसे में कैसे बेच पाएंगे?
इस समस्या से जूझने के लिए अरविंद ने 33×62 इंच का एक फ्रेम बनाया। फ्रेम पर एक कटर सिस्टम लगाया जो पुदीने और डंठल को काटता था और डस्ट को हटाने के लिए पंखा लगाया।
अब सूखा पुदीना, धनिया और मैथी की 30 किलो 30 बोरियां एक घंटे में तैयार हो जाती है। एक आदमी अकेले यह काम कर लेता है। 55,000 से लेकर 90,000 तक की इस मशीन की दिल्ली, यूपी, गुजरात में काफी मांग है।
5. मिर्च साफ करने की मशीन
मथानिया मिर्च की खेती के प्रसिद्ध बेल्ट के रूप में नाम कमा चुका है। तैयार फसल की मिर्च को सूखने के लिए धुप में सुखाया जाता है। इस तरह सुखाने में मिट्टी रह जाती है, खाने में किरकिर आती है और स्वाद भी खराब हो जाता है, जिससे मार्किट वैल्यू भी नहीं मिलती। पर अरविंद ने एक ऐसी मशीन तैयार की जिससे मिर्च से बीज, कंकड़, मिट्टी अलग हो जाती है और 250 किलो माल प्रतिघंटा साफ़ हो जाता है। इस मशीन की कीमत 40,000 से लेकर 75,000 हज़ार रुपये तक है।
पहले मिर्च देश से बाहर जाती थी तो मिर्च का सैंपल लैब टेस्टिंग में फ़ैल हो जाता था। इसलिए मिर्च को विदेश में भेजना बन्द हो गया था। अब इस मशीन से तैयार माल लेब टेस्टिंग में ओके पाया गया है और विदेश जा रहा है।
कभी किसी ज़माने में किसानी की समस्या से जूझने वाले अरविंद ने उन समस्याओं के आगे घुटने नहीं टेके, बल्कि उनका समाधान निकालने में जुटे रहें। उनकी लगन और मेहनत का ही नतीजा है की आज इन मशीनों को बेचने से उनका एनुअल टर्नओवर 2 करोड़ रूपये का है। इससे भी ज़्यादा संतुष्टि उन्हें इस बात की है कि वह किसानों की हर समस्या को हल करने का निरंतर प्रयास कर रहे हैं और कामयाब भी हो रहे हैं।
देश के ऐसे हुनरमंद किसानों को हमारा सलाम!
[ डिसक्लेमर: यह न्यूज वेबसाइट से मिली जानकारियों के आधार पर बनाई गई है. Lok Mantra अपनी तरफ से इसकी पुष्टि नहीं करता है. ]